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दिशा ठीक, किन्तु वक्त के तकाजों को पूरा नहीं कर सका बजट

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इस बार के बजट से सभी वर्गों की अनेकानेक अपेक्षाएं थी और पत्रकार व अर्थशास्त्री भी कई प्रकार की उदार घोषणाओं का अनुमान लगा रहे थे। लेकिन जब बजट आया तो लोग यह ढूंढते ही रहे कि इसमें क्या विशेष है? ख़ास तौर पर नोटबंदी से जिन्हें निरपराध होकर भी मुश्किल दौर को झेलना पड़ा है, उनके लिए क्या कोई राहत या मरहम वाली घोषणा है? परंतु यह बजट तो एक असामान्य दौर में पेश किया गया एक सामान्य बजट ही रहा। जिसमें सरकार अपनी चुनी हुई दिशा में अविचलित ही चलती दिखाई दी और लोगों की अपेक्षाओं / अनुमानों को उसने दरकिनार कर दिया। ऐसा लगा कि अरुण जेटली ने एक संवेदनशील राजनेता की भूमिका पूरी तरह निभाई ही नहीं और अपने ब्यूरोक्रेट्स की हाँ में हाँ मिलाकर ही उन्होंने बजट बना डाला।

जरा देखिये कि वक्त की किन-किन मुख्य मांगो को जेटली की टीम ने अनदेखा किया:

1) अर्थव्यवस्था में एक बड़ी सर्जरी की गयी है, जिसे मीडिया ने ‘नोटबंदी’ का नाम दिया है। यह उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी थी। लेकिन, इससे देश में प्रचलित नकद धनराशि का 84% भाग बैंको में जमा हो गया था और देश अभी भी डिमोनेटाइज़ेशन से रिमोनेटाइज़ेशन की प्रक्रिया में है। रिज़र्व बैंक आंकड़ों के जरिये तो स्थिति को संतोषजनक बताने की कोशिश कर रही है, किन्तु असल में आठ नवम्बर के पहले जितनी नकद मुद्रा प्रचलन में थी; अबतक भी उसकी आधी ही बाजार में लौटकर प्रचलन में आई है। देश के बाजार अब भी नकदी की कमी को झेल रहे हैं। जब वित्तमंत्री खुद बता रहे हैं कि करसंग्रह अच्छा हुआ है और बैंको के पास खूब जमाराशि है; तो वित्तमंत्री के पास यह एक सुनहरा मौका था, जबकि वे नोटबंदी से जिस-जिस कमजोर वर्ग के लोगों की आमदनी प्रभावित हुई है, उन्हें सीधे-सीधे लाभ या मुआवजा पहुँचाने वाले उपाय करते जिससे वे सभी वर्ग समझ पाते कि नोटबंदी उन्हें कोई हानि पहुंचाने के लिए नहीं थी और उन सब विपक्षियों को करारा जवाब मिल जाता जो इसे गरीबो के खिलाफ प्रचारित कर रहे हैं या ‘सामूहिक लूट’ तक बता रहे हैं। साथ ही इससे रिमोनेटाइज़ेशन को भी गति मिलती और यह कदम सच्चा समाजवादी कदम भी साबित होता।
2) नोटबंदी के कारण जो सबसे अधिक बुरी तरह प्रभावित हुआ है, वह असंगठित क्षेत्र का मजदुर वर्ग है, क्योंकि जिन उद्दोगों में वे काम करते थे, उनमें से कई इस दौरान नकदी की कमी के कारण बंद हुए और कुछ करोड़ मजदूरो को एक से दो माह कोई काम नहीं मिला। वित्तमंत्री ने इस दिशा में केवल एक ही उल्लेखनीय कदम उठाया है कि मनरेगा का बजट बढ़ाकर 48000 करोड़ कर दिया है। यह श्रमिकों को उनके गाँव में ही रोजगार दिलाने की दृष्टि से तो अच्छा है, किन्तु इससे जिन श्रमिकों का रोजगार नोटबंदी के दो माह में छूट गया, उनके घावों पर मरहम नहीं लग पायेगा। सरकार को चाहिये कि ऐसे श्रमिको को दो माह के मनरेगा के वेतन के बराबर मुआवजा मिल सके, इसकी व्यवस्था करे। इसके लिए पर्याप्त राशि का प्रावधान इस बजट में हो सकता था। इसके लिए जिला स्तर पर या और भी अधिक विकेन्द्रीकृत व आधुनिक साधनों से त्वरित काम करने वाली ऐसी व्यवस्था करना थी, जो यह मुआवजा दो- तीन माह के अंदर बाँट दे।
3) बजट पूर्व जो आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट पेश की गई, उसमें सबसे अच्छी बात यह थी, कि सरकार गरीबों के लिए ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम’ लागू कर सकती है। लेकिन बजट में इसके लिए किसी प्रावधान तो क्या निर्णय का भी उल्लेख नहीं था। यदि सरकार इसके निर्णय का उल्लेख करके तैयारियों का रोड-मैप ही बता देती तो भी सरकार की गरीब-हितेषी मंशा की झलक मिल जाती। इतना तो हो ही सकता था कि जो प्रामाणिक BPL कार्डधारी हैं और जिन्हें फिलहाल मात्र 200 रुपये की मासिक पेंशन मिलती हैं, यदि उन्हें मार्च में एक-मुश्त 1000 रुपये और फिर 600 रु. मासिक पेंशन मिलने लग जाती तो भी वे निहाल हो जाते।
4) सरकार को इस समय अपने व्यय में काफी वृद्धि करने की जरुरत थी पर उसने अपने वित्तीय घाटे को 3.2 के घोषित स्तर पर ही रखने की गरज में ऐसा नहीं किया। इस तरह सरकार ने विश्व के वित्तीय संस्थानों के सामने अपनी साख को स्थिर बनाये रखने का उपक्रम तो किया, लेकिन कई अर्थशास्त्रियों की नजर में उसने इस समय बैंकों में मौजूद अतिरिक्त जमाराशि का उपयोग करने का अवसर खो दिया। फिलहाल सरकार अपनी ही बैंको से ‘गवर्नमेंट सिक्योरिटीज’ के रूप में काफी बड़ी राशि उधार ले सकती थी, जिससे उसे वैश्विक कर्जदाताओं की अधिक जरुरत ही नहीं रहती। इस अपनी बैंको से लिए गए उधार का वह सार्थक उपयोग करके अपनी वैश्विक साख को और भी बेहतर बना सकती थी। अभी बैंकों में जो अतिरिक्त राशि जमा है, वह धीरे-धीरे कम तो हो रही है, पर उसका करीब एक तिहाई लंबे समय तक जमा ही रहने वाला है और उस पर बैंको को ब्याज देना पड़ेगा, जबकि यदि सरकार उस राशि का उपयोग करती तो बैंको को उस पर ब्याज मिलता। इस तरह सरकार ने नोटबंदी के एक सकारात्मक प्रभाव का पूरा लाभ लेने का अवसर खो दिया।
5) मोदी सरकार किसानों के हितों का जिक्र भी बहुत करती है और उसने कई किसान-हितेषी योजनाएं लागू भी की है; किन्तु नोटबंदी से जिन किसानों को स्पष्ट हानि हुई उनकी फ़िक्र करने में भी यह बजट चूक गया। नकदी की कमी का खामियाजा सब्जी-उत्पादक किसानों को भी उठाना पड़ा था और टमाटर, आलू-प्याज जैसी सब्जियां उन्हें औने-पौने भाव में बेचना पड़ी थी। सरकार को ऐसे किसानों को भी मुआवजा दिलवाने की व्यवस्था करनी चाहिए थी।
6) सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्रो में इस बार भी पुराने ढर्रे को ही जारी रखते हुए इनके बजट को उसी स्तर पर रखा है या बहुत मामूली ही बढ़ाया है। केवल अधो-संरचना के बजट को अच्छा-खासा बढ़ाया है। जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रो के बजट को कम से कम दोगुना तो करना ही चाहिये था। यह जानते हुए भी कि यह बजट की हर वर्ष होने वाली आलोचना है, जेटली ने इस बार भी उसे निमंत्रित किया और उसे टालने का अच्छा अवसर खो दिया।
वैसे इस बजट में सरकार ने कृषि, कौशल-विकास के जरिये रोजगार, सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योगो को बढ़ावा तथा अधोसंरचना विकास के विषयों में अपना फोकस रखा है और उनमें भी मुलभुत महत्त्व के दीर्घ परिणाम देने वाले काम लिए है। इसलिए इस बजट की दिशा व मंशा जरूर अच्छी है, बस इसने समय की मांग को नजर-अंदाज कर दिया है।

हरिप्रकाश ‘विसन्त’

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