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स्मार्ट सिटीजः कन्सेप्ट पेपर की खामियां –– भाग–3

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4. स्मार्ट सिटीज के चयन में एक पहलू यह भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि पूर्व में जो औद्योगिक विकास संबंधी या ‘रोड़ नेटवर्क हायवेज‘ की जो बड़ी परियोजनाएॅ बनाई गई हैं जो या तो पूरी हो चुकी है या जिनका क्रियान्वयन प्रगति पर है, उन परियोजनाओं का भी शहर-चयन संबंधी निर्णय करने में ध्यान रखा जाना चाहिये। जैसे दिल्ली-मुम्बई इंडस्ट्रीयल काॅरीडोर, चैन्नई-बैंगलोर इंडस्ट्रीयल काॅरीडोर, अमृतसर-दिल्ली-कलकत्ता इंडस्ट्रीयल काॅरीडोर, आदि जैसी औद्योगिक विकास की परियोजनाएॅ तथा गोल्डन क्वाड्रीलेटरल (स्वर्णिम चतुर्भुज) नार्थ-साउथ रोड़ काॅरीडोर, ईस्ट-वेस्ट रेाड काॅरीडोर जैसी हायवेज की परियोजनाएं। इन परियोजनाओं के क्षेत्र में या उनके आसपास जो तेज बढ़ते हुए शहर हंै, उन्हें भी चयन में प्राथमिकता देना चाहिये। इससे सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि उक्त परियोजनाओं द्वारा विकास की राह पर चल पड़े ये शहर स्मार्ट बनकर देष के विकास के ओैर भी बेहतर ग्रोथ-इंजिन्स बन सकेंगे। अपने आस पास स्थित शहरों के स्मार्ट-सिटीज बन जाने से उक्त परियोजनाओं के लाभ भी बढ़-चढ़ कर मिलेंगे तथा इन पहले से चल रही परियोजनाओं के कारण इन शहरों को स्मार्ट बनाना तुलनात्मक रूप से आसान भी होगा और अधिक फलदायी भी।
5. मेरे विचार से इस योजना की वितीय आवष्यकताओं का आकलन भी बहुत जल्दबाजी में किया गया हैय जिसकी आवष्यकता ही नहीं थी। अनुमानित प्रति व्यक्ति खर्च का कुल औसत जनसंख्या से गुणा करके कुल व्यय को तय करने की विधि इस संदर्भ में कतई काम नहीं आ सकती है। इस शार्टकट विधि पर पहली आपत्ति तो यह है कि किसी भी शहर के स्मार्ट बनने की अधिकांष आवष्यकताएॅ सीधे-सीधे उनकी जनसंख्या पर निर्भर नहीं करती है। उसे एक-दो नहीं बल्कि दर्जनों कारक मिलकर तय करते हैं। जनसंख्या भी उनमें शामिल हैं लेकिन वह कोई अकेली निर्णायक कारक नहीं है। प्रत्येक शहर की आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक व पर्यावरणीय स्थितियाँ बहुत अलग-अलग है इसलिये उनकी आवष्यकताएँ व प्राथमिकताएॅ भी बहुत अलग हैं। उनमें से बहुत सी आवष्यकताएँ ऐसी है जो जनसंख्या से सीधी सम्बधित नहीं हैं, जैसे उनकी सड़क, रेल व वायुमार्ग से कनेक्टिविटी आदि।
यदि हम शहर की जनसंख्या को उसके स्मार्ट बनने के बजट का आधार बना लेंगे तेा क्या गड़बड़ी होगी इसे उदाहरण द्वारा स्पष्ट करता हूँ। इस आधार पर होगा यह कि दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े महानगरों का बजट तो उनकी वास्तविक आवष्यकताओं से बहुत बड़ा हो जायेगा किन्तु षिलांग, कोहिमा व कटक जैसे अविकसित शहरों को अत्यल्प संसाधन मिलेंगे, जिनके स्मार्ट बनने की आवष्यकताएॅ तो बहुत बड़ी है लेकिन जिनकी वर्तमान जनसंख्या कम है।
दूसरी आपत्ति यह है कि जिस उच्चाधिकार प्राप्त विषेषज्ञ समिति ने प्रति-व्यक्ति निवेष लागत की गणना की थी, उसने अपने लागत अनुमानो में स्मार्ट सिटी के कन्सेप्ट पेपर में शामिल सभी बेंचमाकर््स के मदांे को अपनी गणना में शामिल नहीं किया था, इसलिये उनके द्वारा अनुमानित प्रति व्यक्ति खर्च की राषि 43,386 रूपयों को स्मार्ट सिटी के बजट बनाने का आधार नहीं बनाया जा सकता है।
तीसरी आपत्ति यह है कि जब यह सोचा गया है कि इस योजना का यथासंभव खर्च निजी क्षेत्रों के साथ भागीदारी (च्च्च् माॅडल) द्वारा जुटाया जायेगा तो ऐसे में अभी से कैसे अनुमान लगा सकते है कि निजी क्षेत्र और अन्य स्रोतों से कितना व कैसा योगदान प्राप्त होगा?
चैथी आपत्ति यह है कि इस योजना में जब अगले 20 वर्षो तक कुल बजट की राषि खर्च होना है, तो फिर हम 4-5 वर्ष पुराने जनसंख्या के आंकड़ो को अनुमानित बजट का आधार कैसे बना सकते हैं ? माना कि जो अनुमानित बजट बताया गया है, वह एक प्राथमिक अनुमान है तो सवाल यह है कि कोई प्राथमिक अनुमान भी इतने गलत या अव्यवहारिक आधारों पर क्यों किया जाये?
मेरी समझ में तो आज की स्थिति में कोई अनुमानित व्यय के आंकड़े देना कतई आवष्यक भी नहीं था, बेहतर होता कि सरकार कहती कि इस महती दीर्घकालीन योजना के प्रथम वर्ष में हमें केवल विभिन्न शहरों का केन्द्र से लेकर स्थानीय स्तर तक योजना बनाने व मानीटरिंग करने वाली सतत् कार्यषील संस्थाओं का एक ढांचा या नेटवर्क खड़ा करना है और प्रत्येक चयनित शहर की कम से कम स्थानीय जमीनी स्तर की प्रस्तावित योजनाएॅ बनवा लेना है। जिसके लिये हम अगले बजट वर्ष 2015-16 में 35,000 करोड़ रूपयों (या जो राषि आवष्यक समझी जाये) का प्रावधान कर रहे है और आगामी 20 वर्षो तक आवष्यकतानुसार धन की व्यवस्था की जाती रहेगी। ऐसा लिखा जाता तो बात अधिक विवके-सम्मत या समझ में आने वाली लगती। मेरा सुझाव है कि सरकार को अब भी यह स्पष्ट कर देना चाहिये कि कन्सेप्ट पेपर में दिये गये वित्तीय प्रावधानों के आकड़े तो एक स्थूल अनुमान लगाते हुए सरकार की मंषा को प्रदर्षित करने के लिये दिये गये थे। मेरा यह आग्रह भी है कि अब कभी भी इस प्रकार के बजटीय अनुमान न तो प्रति व्यक्ति व्यय के आधार पर लगाये जाये न प्रति शहर गुणांक तय करके। यह भी स्वीकार किया जाना चाहिये कि इस योजना का व्यावाहरिक संयुक्त  बजट तो एक वर्ष बाद ही प्रत्येक चयनित शहर की अलग-अलग योजनाओं के प्रस्तावों की समीक्षा एवं सम्मिलन कर लिये जाने के बाद ही बनाया जा सकता है।
6. इस कन्सेप्ट-पेपर द्वारा केन्द्र ने अपने स्तर पर इरादों व अपेक्षाओं का एक खाका तो प्रस्तुत कर दिया है। परन्तु, अब आवष्यक है कि स्मार्ट सिटीज की योजना प्रक्रिया को अधिक से अधिक विकेन्द्रित स्वरूप में ‘बाॅटम-अप अप्रोच‘ के साथ चलाया जाये। जब शहरों का चयन हो जायेगा तो हम पायेंगे कि कई चयनित शहर (जैसे पिछड़े व पर्वतीय राज्यों की राजधानियाॅ) अभी भी शहरी विकास के मापदण्डों पर बहुत पीछे हैं और स्मार्ट बनने के घोषित मापदण्ड पाने से पहले उन्हें तो नागरिकों की बिजली, पानी, सड़क, षिक्षा, चिकित्सा जैसी मूलभूत जरूरतें पूरी करने के लिये ही बहुत कुछ करना बाकी है। ऐसे विभिन्नताओं के माहौल में और भी आवष्यक हैं कि योजनाएॅ सबसे पहले स्थानीय स्तर पर जन आकांक्षाओं के अनुरूप बनें और इस तरह यदि किसी पिछड़े शहर के हर घर में शुद्ध पेयजल या बिजली पहुचाने का खर्च सरकार द्वारा माने गये प्रति व्यक्ति औसत बजट से बहुत अधिक भी आता हो तो भी इन मूलभूत आवष्यकता के लिये तो पूँजी प्राथमिकता से मिलना चाहिये। प्रत्येक शहर की विभिन्नताओं को हमेषा ही पर्याप्त महत्व मिलना बेहद जरूरी है।
7. स्मार्ट सिटीज में क्या क्या होगा ? इस हेतु जो बेंच-माकर््स बताये गये है, वे तो बहुत आकर्षक और प्रषंसनीय हैं। उन पर शायद ही किसी को आपत्ति हो किंतु मैं एक मुददे पर पुनर्विचार का आग्रह करता हँू। वह है ‘‘शहर में 24×7  पानी की सार्वजनिक आपूर्ति ‘‘यदि हम विभिन्न शहरों में इस लक्ष्य को पूरा करने की लागत को देखेंगे तो पायेंगे कि यह लक्ष्य लागत-लाभ मूल्यांकन की दृष्टि से कतई उचित नहीं है और उससे भी बढ़कर बात यह है कि इस तरह शहरवासियों को नलों से लगातार पानी उपलब्ध कराने की कोई उपयोगिता व आवष्यकता भी नहीं है। इसके पक्ष में जो तर्क दिये गये हैं वे ‘‘पानी की हर समय उपलब्धता‘‘ और ‘‘पानी की नलों द्वारा हर समय आपूर्ति‘‘ इन दो अलग-अलग बातेां को एक ही मान लेने से पैदा हुए हैं।
मैं अपने इन्दौर शहर के अनुभव से यह बात कह रहा हँू। इन्दौर में नर्मदा नदि से बहुत बड़ा खर्च करके 3 चरणों की योजना के बाद पानी की आपूर्ति संभव हुई है। फिर भी शहर के अधिकांष हिस्सो में 1 दिन छोड़कर 1 से 3 घंटेां के लिये पानी सप्लाय किया जाता है। इससे शहरवासी अपनी दो दिन की जरूरत का पानी भर लेते है और अपना काम चला लेने के आदी हो चुके हंै। इस प्रकार से सीमित समय के लिये पानी सप्लाय होने पर भी आमतौर पर शहर भर में हमेषा आवष्यक मात्रा में पानी उपलब्ध रहता है। कभी-कभी कहीं-कहीं कठिनाई भी आती होगी। मगर इस उदाहरण से मेरा आषय यह है कि यदि हम शहरों में पानी सीमित समय के लिये ही मगर पर्याप्त मात्रा में सप्लाय करें तो भी हमेषा लगातार पानी की उपलब्धता रह सकती है और पानी की उपलब्धता न रहने से कार्य क्षमता घटने, बीमारीयाॅ बढ़ने या मृत्यु दर बढ़ने जैसे जो तर्क दिये गये है उनका कोई औचित्य 24×7 पानी सप्लाय करने के पक्ष में नहीं है। महत्व इस बात का है कि सप्लाय किये गये पानी की कुल मात्रा पर्याप्त हो और उसकी गुणवता या शुद्धता अच्छी हो। अतः लगातार पानी सप्लाय का लक्ष्य तो व्यर्थ में बजट बढ़ाने वाला तथा शहरवासियों को पानी के समुचित उपयोग के प्रति लापरवाह बनाने वाला सोच है, जो हमारे देष की जमीनी हकीकत के कतई अनुकूल नहीं हैं।

4. स्मार्ट सिटीज के चयन में एक पहलू यह भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि पूर्व में जो औद्योगिक विकास संबंधी या ‘रोड़ नेटवर्क हायवेज‘ की जो बड़ी परियोजनाएॅ बनाई गई हैं जो या तो पूरी हो चुकी है या जिनका क्रियान्वयन प्रगति पर है, उन परियोजनाओं का भी शहर-चयन संबंधी निर्णय करने में ध्यान रखा जाना चाहिये। जैसे दिल्ली-मुम्बई इंडस्ट्रीयल काॅरीडोर, चैन्नई-बैंगलोर इंडस्ट्रीयल काॅरीडोर, अमृतसर-दिल्ली-कलकत्ता इंडस्ट्रीयल काॅरीडोर, आदि जैसी औद्योगिक विकास की परियोजनाएॅ तथा गोल्डन क्वाड्रीलेटरल (स्वर्णिम चतुर्भुज) नार्थ-साउथ रोड़ काॅरीडोर, ईस्ट-वेस्ट रेाड काॅरीडोर जैसी हायवेज की परियोजनाएं। इन परियोजनाओं के क्षेत्र में या उनके आसपास जो तेज बढ़ते हुए शहर हंै, उन्हें भी चयन में प्राथमिकता देना चाहिये। इससे सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि उक्त परियोजनाओं द्वारा विकास की राह पर चल पड़े ये शहर स्मार्ट बनकर देष के विकास के ओैर भी बेहतर ग्रोथ-इंजिन्स बन सकेंगे। अपने आस पास स्थित शहरों के स्मार्ट-सिटीज बन जाने से उक्त परियोजनाओं के लाभ भी बढ़-चढ़ कर मिलेंगे तथा इन पहले से चल रही परियोजनाओं के कारण इन शहरों को स्मार्ट बनाना तुलनात्मक रूप से आसान भी होगा और अधिक फलदायी भी।

5. मेरे विचार से इस योजना की वितीय आवष्यकताओं का आकलन भी बहुत जल्दबाजी में किया गया हैय जिसकी आवष्यकता ही नहीं थी। अनुमानित प्रति व्यक्ति खर्च का कुल औसत जनसंख्या से गुणा करके कुल व्यय को तय करने की विधि इस संदर्भ में कतई काम नहीं आ सकती है। इस शार्टकट विधि पर पहली आपत्ति तो यह है कि किसी भी शहर के स्मार्ट बनने की अधिकांष आवष्यकताएॅ सीधे-सीधे उनकी जनसंख्या पर निर्भर नहीं करती है। उसे एक-दो नहीं बल्कि दर्जनों कारक मिलकर तय करते हैं। जनसंख्या भी उनमें शामिल हैं लेकिन वह कोई अकेली निर्णायक कारक नहीं है। प्रत्येक शहर की आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक व पर्यावरणीय स्थितियाँ बहुत अलग-अलग है इसलिये उनकी आवष्यकताएँ व प्राथमिकताएॅ भी बहुत अलग हैं। उनमें से बहुत सी आवष्यकताएँ ऐसी है जो जनसंख्या से सीधी सम्बधित नहीं हैं, जैसे उनकी सड़क, रेल व वायुमार्ग से कनेक्टिविटी आदि।

यदि हम शहर की जनसंख्या को उसके स्मार्ट बनने के बजट का आधार बना लेंगे तेा क्या गड़बड़ी होगी इसे उदाहरण द्वारा स्पष्ट करता हूँ। इस आधार पर होगा यह कि दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े महानगरों का बजट तो उनकी वास्तविक आवष्यकताओं से बहुत बड़ा हो जायेगा किन्तु षिलांग, कोहिमा व कटक जैसे अविकसित शहरों को अत्यल्प संसाधन मिलेंगे, जिनके स्मार्ट बनने की आवष्यकताएॅ तो बहुत बड़ी है लेकिन जिनकी वर्तमान जनसंख्या कम है।

दूसरी आपत्ति यह है कि जिस उच्चाधिकार प्राप्त विषेषज्ञ समिति ने प्रति-व्यक्ति निवेष लागत की गणना की थी, उसने अपने लागत अनुमानो में स्मार्ट सिटी के कन्सेप्ट पेपर में शामिल सभी बेंचमाकर््स के मदांे को अपनी गणना में शामिल नहीं किया था, इसलिये उनके द्वारा अनुमानित प्रति व्यक्ति खर्च की राषि 43,386 रूपयों को स्मार्ट सिटी के बजट बनाने का आधार नहीं बनाया जा सकता है। तीसरी आपत्ति यह है कि जब यह सोचा गया है कि इस योजना का यथासंभव खर्च निजी क्षेत्रों के साथ भागीदारी (च्च्च् माॅडल) द्वारा जुटाया जायेगा तो ऐसे में अभी से कैसे अनुमान लगा सकते है कि निजी क्षेत्र और अन्य स्रोतों से कितना व कैसा योगदान प्राप्त होगा? चैथी आपत्ति यह है कि इस योजना में जब अगले 20 वर्षो तक कुल बजट की राषि खर्च होना है, तो फिर हम 4-5 वर्ष पुराने जनसंख्या के आंकड़ो को अनुमानित बजट का आधार कैसे बना सकते हैं ? माना कि जो अनुमानित बजट बताया गया है, वह एक प्राथमिक अनुमान है तो सवाल यह है कि कोई प्राथमिक अनुमान भी इतने गलत या अव्यवहारिक आधारों पर क्यों किया जाये?

मेरी समझ में तो आज की स्थिति में कोई अनुमानित व्यय के आंकड़े देना कतई आवष्यक भी नहीं था, बेहतर होता कि सरकार कहती कि इस महती दीर्घकालीन योजना के प्रथम वर्ष में हमें केवल विभिन्न शहरों का केन्द्र से लेकर स्थानीय स्तर तक योजना बनाने व मानीटरिंग करने वाली सतत् कार्यषील संस्थाओं का एक ढांचा या नेटवर्क खड़ा करना है और प्रत्येक चयनित शहर की कम से कम स्थानीय जमीनी स्तर की प्रस्तावित योजनाएॅ बनवा लेना है। जिसके लिये हम अगले बजट वर्ष 2015-16 में 35,000 करोड़ रूपयों (या जो राषि आवष्यक समझी जाये) का प्रावधान कर रहे है और आगामी 20 वर्षो तक आवष्यकतानुसार धन की व्यवस्था की जाती रहेगी। ऐसा लिखा जाता तो बात अधिक विवके-सम्मत या समझ में आने वाली लगती। मेरा सुझाव है कि सरकार को अब भी यह स्पष्ट कर देना चाहिये कि कन्सेप्ट पेपर में दिये गये वित्तीय प्रावधानों के आकड़े तो एक स्थूल अनुमान लगाते हुए सरकार की मंषा को प्रदर्षित करने के लिये दिये गये थे। मेरा यह आग्रह भी है कि अब कभी भी इस प्रकार के बजटीय अनुमान न तो प्रति व्यक्ति व्यय के आधार पर लगाये जाये न प्रति शहर गुणांक तय करके। यह भी स्वीकार किया जाना चाहिये कि इस योजना का व्यावाहरिक संयुक्त  बजट तो एक वर्ष बाद ही प्रत्येक चयनित शहर की अलग-अलग योजनाओं के प्रस्तावों की समीक्षा एवं सम्मिलन कर लिये जाने के बाद ही बनाया जा सकता है।

6. इस कन्सेप्ट-पेपर द्वारा केन्द्र ने अपने स्तर पर इरादों व अपेक्षाओं का एक खाका तो प्रस्तुत कर दिया है। परन्तु, अब आवष्यक है कि स्मार्ट सिटीज की योजना प्रक्रिया को अधिक से अधिक विकेन्द्रित स्वरूप में ‘बाॅटम-अप अप्रोच‘ के साथ चलाया जाये। जब शहरों का चयन हो जायेगा तो हम पायेंगे कि कई चयनित शहर (जैसे पिछड़े व पर्वतीय राज्यों की राजधानियाॅ) अभी भी शहरी विकास के मापदण्डों पर बहुत पीछे हैं और स्मार्ट बनने के घोषित मापदण्ड पाने से पहले उन्हें तो नागरिकों की बिजली, पानी, सड़क, षिक्षा, चिकित्सा जैसी मूलभूत जरूरतें पूरी करने के लिये ही बहुत कुछ करना बाकी है। ऐसे विभिन्नताओं के माहौल में और भी आवष्यक हैं कि योजनाएॅ सबसे पहले स्थानीय स्तर पर जन आकांक्षाओं के अनुरूप बनें और इस तरह यदि किसी पिछड़े शहर के हर घर में शुद्ध पेयजल या बिजली पहुचाने का खर्च सरकार द्वारा माने गये प्रति व्यक्ति औसत बजट से बहुत अधिक भी आता हो तो भी इन मूलभूत आवष्यकता के लिये तो पूँजी प्राथमिकता से मिलना चाहिये। प्रत्येक शहर की विभिन्नताओं को हमेषा ही पर्याप्त महत्व मिलना बेहद जरूरी है।

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