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स्मार्ट सिटीजः कन्सेप्ट पेपर की खामियां –– भाग–२

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2. शहरो के चयन के सम्बध में एक और बङ़ी तथा अधिक स्पष्ट गलती यह है कि इसमें देश के सबसे अधिक जनसंख्या वाले (40 लाख से अधिक) और अतिमहत्वपूर्ण दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू जैसे 9 महानगरों को पूरी तरह से छोड़ दिया गया है। जब कन्सेप्ट पेपर में ही बारम्बार कहा गया है कि  स्मार्ट सिटी होने का अर्थ शहर का बड़ा होना और केवल भौतिक संरचनाओं से युक्त होना नहीं है तो जाहिर है कि फिलहाल ये 9 महानगर भी स्मार्ट सिटीज नहीं है। तब तो इन्हें स्मार्ट सिटी बनाना सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरी है। यह तो अजीब बात होगी कि इनके आसपास किसी एक सेटलाईट सिटी को तो स्मार्ट बनाया जायेगा लेकिन इन्हें नहीं। जबकि ये शहर पहले से ही हमारे विकास के मुख्य इंजिन हैं, तो इन्हें स्मार्ट बनाकर उनका विकास पर सकारात्मक  प्रभाव बढ़ाना तो सबसे अधिक जरूरी है और इन्हें स्मार्ट बनाने का प्रतिव्यक्ति खर्च भी अन्य शहरों से कम ही आयेगा। इन महानगरों के पास ही किसी एक सेटलाईट सिटी को भी स्मार्ट सिटी बनाना चाहिये ताकि इन पर पलायन से बढ़ रही आबादी का बोझ कम हो। परन्तु, इसका अर्थ यह नही है कि हम इनको स्मार्ट बनाये ही नहीं। यहंाॅ सवाल प्रति शहर वितीय आवंटन का बिल्कुल नहीं है। जब हमें आबादी के हिसाब से नही बल्कि हर शहर की अपनी आवश्यकताओं और संभावनाओं को ध्यान में रखकर आवंटन करना है तो बहुत संभव है कि हम इन महानगरों को तो कम बजट में ही स्मार्ट बना लें तथा इनके पास चुनी गई सेटलाईट सिटी केा अधिक संसाधन देकर और भी अधिक स्मार्ट व आकर्षक बनायें। परन्तु, वर्तमान में देश के विकास की धुरी बने हुए इन 9 महानगरों को यदि हमने स्मार्ट नहीं बनाया तो हमारी स्मार्ट सिटी की अवधारणा ही प्रश्नों के घेरे में आ जायेगी और देश के विकास को जो तेजी इन प्रमुख महानगरों के भी स्मार्ट बनने से मिल सकती है वह नहीं मिल पायेगी।
3. सन् 2011 की जनसंख्या को शहर-चयन का मुख्य आधार बना लेने से एक बड़ी गड़बडी यह हो रही है कि, चूॅकि कई पिछड़े राज्यों में तो कुछेक राजधानियों को छोड़कर 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहर ही नही है। इसलिये चयन के प्रथम चार आधारों पर तो बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उत्तराखण्ड तथा जम्मू कष्मीर को काफी बड़े राज्य होने के बावजूद बहुत कम ही स्मार्ट सिटीज मिलने के आसार लगते हैं। इसके विपरीत जो विकसित व सम्पन्न राज्य हंै, वे अधिक स्मार्ट सिटीज पा सकते हैं। इससे मौजूदा क्षेत्रिय असंतुलन और अधिक बढ़ जायेगा। इस समस्या के हल के रूप में यह कहा जा सकता है कि, जिन 25 शहरों का चयन 5 लाख से 10 लाख की आबादी वाले शहरों में से करने का सोचा गया है, उनमें इन पिछड़े राज्यों के शहरों को अधिक संख्या में चुना जायेगा। लेकिन मैं समझता हँू कि जब हम जनसंख्या के बजाय विकास की तुलनात्मक संभावनाओं को आधार बनायेगें तो हमारी यह समस्या कुछ हद तक तो कम हो जायेगी। परन्तु इसे पूरी तरह से हल करने के लिये उचित यह होगा कि चयन का एक अन्य मानदण्ड यह भी मान लिया जाये कि किसी राज्य से चुने जाने वाले कुल शहरों की संख्या और उस राज्य की कुल आबादी के बीच एक लचीला अनुपातिक संबंध रहेगा। उदाहरण के लिये करीब 11 करोड़ की आबादी वाले बिहार को न्यूनतम 5 व अधिकतम 10 स्मार्ट सिटीज मिलना चाहिये जबकि करीब 6 करोड़ की आबादी वाले गुजरात को 3 से 6 तक स्मार्ट सिटीज ही मिलना चाहिये। यह जरूर हो सकता है कि यदि विकास की संभावना किसी प्रदेष के अधिक शहरों में हो तो उसे तय की गई रेंज मे से अधिकतम सिटीज तथा जिस प्रदेष के शहरों में तीव्र विकास की कम संभाव्यता हंै, वहाॅ निर्धारित रेंज की न्यूनतम संख्या की सिटीज मिलें अर्थात इस तरह बिहार व गुजरात दोनों को 5 या 6 स्मार्ट सिटीज मिल सकती हैं।
4. 4ण् स्मार्ट सिटीज के चयन में एक पहलू यह भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि पूर्व में जो औद्योगिक विकास संबंधी या ‘रोड़ नेटवर्क हायवेज‘ की जो बड़ी परियोजनाएॅ बनाई गई हैं जो या तो पूरी हो चुकी है या जिनका क्रियान्वयन प्रगति पर है, उन परियोजनाओं का भी शहर-चयन संबंधी निर्णय करने में ध्यान रखा जाना चाहिये। जैसे दिल्ली-मुम्बई इंडस्ट्रीयल काॅरीडोर, चैन्नई-बैंगलोर इंडस्ट्रीयल काॅरीडोर, अमृतसर-दिल्ली-कलकत्ता इंडस्ट्रीयल काॅरीडोर, चैन्नई-बैंगलोर इंडस्ट्रीयल काॅरीडोर, आदि जैसी औद्योगिक विकास की परियोजनाएॅ तथा गोल्डन क्वाड्रीलेटरल (स्वर्णिम चतुर्भुज) नार्थ-साउथ रोड़ काॅरीडोर, ईस्ट-वेस्ट रेाड काॅरीडोर जैसी हायवेज की परियोजनाएं। इन परियोजनाओं के क्षेत्र में या उनके आसपास जो तेज बढ़ते हुए शहर हंै, उन्हें भी चयन में प्राथमिकता देना चाहिये। इससे सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि उक्त परियोजनाओं द्वारा विकास की राह पर चल पड़े ये शहर स्मार्ट बनकर देष के विकास के ओैर भी बेहतर ग्रोथ-इंजिन्स बन सकेंगे। अपने आस पास स्थित शहरों के स्मार्ट-सिटीज बन जाने से उक्त परियोजनाओं के लाभ भी बढ़-चढ़ कर मिलेंगे तथा इन पहले से चल रही परियोजनाओं के कारण इन शहरों को स्मार्ट बनाना तुलनात्मक रूप से आसान भी होगा और अधिक फलदायी भी।
5. मेरे विचार से इस योजना की वितीय आवष्यकताओं का आकलन भी बहुत जल्दबाजी में किया गया हैय जिसकी आवष्यकता ही नहीं थी। अनुमानित प्रति व्यक्ति खर्च का कुल औसत जनसंख्या से गुणा करके कुल व्यय को तय करने की विधि इस संदर्भ में कतई काम नहीं आ सकती है। इस शार्टकट विधि पर पहली आपत्ति तो यह है कि किसी भी शहर के स्मार्ट बनने की अधिकांष आवष्यकताएॅ सीधे-सीधे उनकी जनसंख्या पर निर्भर नहीं करती है। उसे एक-दो नहीं बल्कि दर्जनों कारक मिलकर तय करते हैं। जनसंख्या भी उनमें शामिल हैं लेकिन वह कोई अकेली निर्णायक कारक नहीं है। प्रत्येक शहर की आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक व पर्यावरणीय स्थितियाँ बहुत अलग-अलग है इसलिये उनकी आवष्यकताएँ व प्राथमिकताएॅ भी बहुत अलग हैं। उनमें से बहुत सी आवष्यकताएँ ऐसी है जो जनसंख्या से सीधी सम्बधित नहीं हैं, जैसे उनकी सड़क, रेल व वायुमार्ग से कनेक्टिविटी आदि।
यदि हम शहर की जनसंख्या को उसके स्मार्ट बनने के बजट का आधार बना लेंगे तेा क्या गड़बड़ी होगी इसे उदाहरण द्वारा स्पष्ट करता हूँ। इस आधार पर होगा यह कि दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े महानगरों का बजट तो उनकी वास्तविक आवष्यकताओं से बहुत बड़ा हो जायेगा किन्तु षिलांग, कोहिमा व कटक जैसे अविकसित शहरों को अत्यल्प संसाधन मिलेंगे, जिनके स्मार्ट बनने की आवष्यकताएॅ तो बहुत बड़ी है लेकिन जिनकी वर्तमान जनसंख्या कम है।
दूसरी आपत्ति यह है कि जिस उच्चाधिकार प्राप्त विषेषज्ञ समिति ने प्रति-व्यक्ति निवेष लागत की गणना की थी, उसने अपने लागत अनुमानो में स्मार्ट सिटी के कन्सेप्ट पेपर में शामिल सभी बेंचमाकर््स के मदांे को अपनी गणना में शामिल नहीं किया था, इसलिये उनके द्वारा अनुमानित प्रति व्यक्ति खर्च की राषि 43,386 रूपयों को स्मार्ट सिटी के बजट बनाने का आधार नहीं बनाया जा सकता है।
तीसरी आपत्ति यह है कि जब यह सोचा गया है कि इस योजना का यथासंभव खर्च निजी क्षेत्रों के साथ भागीदारी (च्च्च् माॅडल) द्वारा जुटाया जायेगा तो ऐसे में अभी से कैसे अनुमान लगा सकते है कि निजी क्षेत्र और अन्य स्रोतों से कितना व कैसा योगदान प्राप्त होगा?
चैथी आपत्ति यह है कि इस योजना में जब अगले 20 वर्षो तक कुल बजट की राषि खर्च होना है, तो फिर हम 4-5 वर्ष पुराने जनसंख्या के आंकड़ो को अनुमानित बजट का आधार कैसे बना सकते हैं ? माना कि जो अनुमानित बजट बताया गया है, वह एक प्राथमिक अनुमान है तो सवाल यह है कि कोई प्राथमिक अनुमान भी इतने गलत या अव्यवहारिक आधारों पर क्यों किया जाये?
मेरी समझ में तो आज की स्थिति में कोई अनुमानित व्यय के आंकड़े देना कतई आवष्यक भी नहीं था, बेहतर होता कि सरकार कहती कि इस महती दीर्घकालीन योजना के प्रथम वर्ष में हमें केवल विभिन्न शहरों का केन्द्र से लेकर स्थानीय स्तर तक योजना बनाने व मानीटरिंग करने वाली सतत् कार्यषील संस्थाओं का एक ढांचा या नेटवर्क खड़ा करना है और प्रत्येक चयनित शहर की कम से कम स्थानीय जमीनी स्तर की प्रस्तावित योजनाएॅ बनवा लेना है। जिसके लिये हम अगले बजट वर्ष 2015-16 में 35,000 करोड़ रूपयों (या जो राषि आवष्यक समझी जाये) का प्रावधान कर रहे है और आगामी 20 वर्षो तक आवष्यकतानुसार धन की व्यवस्था की जाती रहेगी। ऐसा लिखा जाता तो बात अधिक विवके-सम्मत या समझ में आने वाली लगती। मेरा सुझाव है कि सरकार को अब भी यह स्पष्ट कर देना चाहिये कि कन्सेप्ट पेपर में दिये गये वित्तीय प्रावधानों के आकड़े तो एक स्थूल अनुमान लगाते हुए सरकार की मंषा को प्रदर्षित करने के लिये दिये गये थे। मेरा यह आग्रह भी है कि अब कभी भी इस प्रकार के बजटीय अनुमान न तो प्रति व्यक्ति व्यय के आधार पर लगाये जाये न प्रति शहर गुणांक तय करके। यह भी स्वीकार किया जाना चाहिये कि इस योजना का व्यावाहरिक संयुक्त  बजट तो एक वर्ष बाद ही प्रत्येक चयनित शहर की अलग-अलग योजनाओं के प्रस्तावों की समीक्षा एवं सम्मिलन कर लिये जाने के बाद ही बनाया जा सकता है।

2. शहरो के चयन के सम्बध में एक और बङ़ी तथा अधिक स्पष्ट गलती यह है कि इसमें देश के सबसे अधिक जनसंख्या वाले (40 लाख से अधिक) और अतिमहत्वपूर्ण दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू जैसे 9 महानगरों को पूरी तरह से छोड़ दिया गया है। जब कन्सेप्ट पेपर में ही बारम्बार कहा गया है कि  स्मार्ट सिटी होने का अर्थ शहर का बड़ा होना और केवल भौतिक संरचनाओं से युक्त होना नहीं है तो जाहिर है कि फिलहाल ये 9 महानगर भी स्मार्ट सिटीज नहीं है। तब तो इन्हें स्मार्ट सिटी बनाना सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरी है। यह तो अजीब बात होगी कि इनके आसपास किसी एक सेटलाईट सिटी को तो स्मार्ट बनाया जायेगा लेकिन इन्हें नहीं। जबकि ये शहर पहले से ही हमारे विकास के मुख्य इंजिन हैं, तो इन्हें स्मार्ट बनाकर उनका विकास पर सकारात्मक  प्रभाव बढ़ाना तो सबसे अधिक जरूरी है और इन्हें स्मार्ट बनाने का प्रतिव्यक्ति खर्च भी अन्य शहरों से कम ही आयेगा। इन महानगरों के पास ही किसी एक सेटलाईट सिटी को भी स्मार्ट सिटी बनाना चाहिये ताकि इन पर पलायन से बढ़ रही आबादी का बोझ कम हो। परन्तु, इसका अर्थ यह नही है कि हम इनको स्मार्ट बनाये ही नहीं। यह सवाल प्रति शहर वितीय आवंटन का बिल्कुल नहीं है। जब हमें आबादी के हिसाब से नही बल्कि हर शहर की अपनी आवश्यकताओं और संभावनाओं को ध्यान में रखकर आवंटन करना है तो बहुत संभव है कि हम इन महानगरों को तो कम बजट में ही स्मार्ट बना लें तथा इनके पास चुनी गई सेटलाईट सिटी केा अधिक संसाधन देकर और भी अधिक स्मार्ट व आकर्षक बनायें। परन्तु, वर्तमान में देश के विकास की धुरी बने हुए इन 9 महानगरों को यदि हमने स्मार्ट नहीं बनाया तो हमारी स्मार्ट सिटी की अवधारणा ही प्रश्नों के घेरे में आ जायेगी और देश के विकास को जो तेजी इन प्रमुख महानगरों के भी स्मार्ट बनने से मिल सकती है वह नहीं मिल पायेगी।

3. सन् 2011 की जनसंख्या को शहर-चयन का मुख्य आधार बना लेने से एक बड़ी गड़बडी यह हो रही है कि, चूॅकि कई पिछड़े राज्यों में तो कुछेक राजधानियों को छोड़कर 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहर ही नही है। इसलिये चयन के प्रथम चार आधारों पर तो बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उत्तराखण्ड तथा जम्मू कष्मीर को काफी बड़े राज्य होने के बावजूद बहुत कम ही स्मार्ट सिटीज मिलने के आसार लगते हैं। इसके विपरीत जो विकसित व सम्पन्न राज्य हैं, वे अधिक स्मार्ट सिटीज पा सकते हैं। इससे मौजूदा क्षेत्रिय असंतुलन और अधिक बढ़ जायेगा। इस समस्या के हल के रूप में यह कहा जा सकता है कि, जिन 25 शहरों का चयन 5 लाख से 10 लाख की आबादी वाले शहरों में से करने का सोचा गया है, उनमें इन पिछड़े राज्यों के शहरों को अधिक संख्या में चुना जायेगा। लेकिन मैं समझता हँ कि जब हम जनसंख्या के बजाय विकास की तुलनात्मक संभावनाओं को आधार बनायेगें तो हमारी यह समस्या कुछ हद तक तो कम हो जायेगी। परन्तु इसे पूरी तरह से हल करने के लिये उचित यह होगा कि चयन का एक अन्य मानदण्ड यह भी मान लिया जाये कि किसी राज्य से चुने जाने वाले कुल शहरों की संख्या और उस राज्य की कुल आबादी के बीच एक लचीला अनुपातिक संबंध रहे। उदाहरण के लिये करीब 11 करोड़ की आबादी वाले बिहार को न्यूनतम 5 व अधिकतम 10 स्मार्ट सिटीज मिलना चाहिये जबकि करीब 6 करोड़ की आबादी वाले गुजरात को 3 से 6 तक स्मार्ट सिटीज ही मिलना चाहिये। यह जरूर हो सकता है कि यदि विकास की संभावना किसी प्रदेष के अधिक शहरों में हो तो उसे तय की गई रेंज मे से अधिकतम सिटीज तथा जिस प्रदेष के शहरों में तीव्र विकास की कम संभाव्यता हैं, वहाॅ निर्धारित रेंज की न्यूनतम संख्या की सिटीज मिलें अर्थात इस तरह बिहार व गुजरात दोनों को 5 या 6 स्मार्ट सिटीज मिल सकती हैं।

अगली ‌पोस्ट‌‌ मे जारी –––

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